गरीबों का काल है कोम्न्वेल्थ खेल
"लोग चढ़ा रहे है मजारों पर चादरें ,
लेकिन किसे खबर कि कोई बेकफन भी हैं" ।
भारत मुनियों और धर्म कि भूमि माना जाता है जहाँ यह सत्य कहते है कि हमें अपनी हेसियत और ओकात में रहकर खर्च करना चाहिए या कि चादर देखकर पैर पसारना चाहिए । तो भारत में कोमनवेल्थ खेलों को आयोजित करने में जितना पैसा बहाया जा रहा है क्या उससे आम आदमी को एक रूपए का भी फायदा हुआ है ?क्या कोई यह प्रावधान है कि कोई एक भी गरीब आदमी उस खेल को देखने कि विशेष छुट मिली है ?.........लेकिन उनके लिए एक तोहफा जरुर दिया गया है , महंगाई का वो फंदा जो कुछ दिन पहले बसों का किराया बढाकर उनके गले में डाला गया था ।
५० करोड़ का वो गुबारा जिसके पैसों को यदि रोडवेज विभाग को दिया होता तो शायद इस परेशानी से तो नहीं जूझना होता । और यदि इन पैसों को शिक्षा विभाग या खेल नर्सरियों को तेयार करने में लगाया जाता तो आने वाले समय में जब भी विश्व में खेल होते तो भारत का स्वर्ण , रजत और कांस्य पदक विजेताओं में पहला स्थान होता ।
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